सौर संस्कृती – एक दर्शन

दीपार्णव ग्रंथ में सूर्य के तेरह नाम और स्वरुप कहे गये है और वे सभी दो दो हाथों के कहे गये है, तथा आयुधों में शंख, कमल, चक्र, गदा, वज्रदण्ड, पद्मदंड आदि में से कोई दो आयुध देने का विधान है ।

विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक, ज्योतिष्यादि विद्याओं प्रकाण्ड विद्वान शाकद्वीपीय ब्राह्मण मग श्रेष्ठ. वराह मिहिर ने बृहत्संहिता नामक अति विद्वता पूर्ण ग्रंथ की रचना की। जिसमें आपने स्पष्ट किया कि मग ब्राह्मण सूर्य के पूजारी है। तथा सूर्यमूर्ति के वर्णन में आप सूर्यमूर्ति मे नाक कान जंघा पिंडली गाल छानि आदि के उंचे होने का विधान किया है । मुखाकृति सफेद कमल के गर्भ जैसी सुन्दरव हंसता हुआ शांत चेहरा तथा मस्तक पर रत्नजटित मुकुट होना चाहिये जो सभी को सुख प्रदान करती है। यह मूर्ति सप्राश्व एक रथ पर विराजमान रहती है । या सूर्यमूर्ति समपाद मुद्रा में खड़ी होती है । दोनों हाथों मे कमलदंड होते है तथा छाति योद्धा जैसी विशाल होती है । और पैरों में होलबुट होते है । बीना होलबुट की मूर्ति क्वचित ही दिखई देती है। सूर्य का मूल वर्ण लाल है। सूर्य प्रतिमा के परिकर में (संज्ञा) और छाया दोनो सूर्य पत्नियों की मूर्तिया दंडि और पिंगल नामक प्रतिहारि के साथ आंकी जाती है । तथा वाहन सप्राश्न ही होता है, सारथी अरुण है ।

भारत में मगों का आगमन अति प्राचिन है । सूर्यवंशी महाराजा ईश्वांकु के समयसेही वशिष्ठ ऋषी सह मग ब्राह्मण भारत में आये, आयोध्या नरेश दशरथ महाराज द्वारा आयोजित पुत्र कामेष्ठी यज्ञ के समय वशिष्ठ ऋषी द्वारा यज्ञ विशेषज्ञ (कर्ता) मग ब्राह्मणों का पुनःश्च आगमन हुआ और सर्व विदित भगवान श्री कृष्ण पुत्र जांबवती नंदन सांब के कुष्ट रोग निदान निमित्त सूर्यपूजा आदि के लिये श्रीकृष्ण आदेशसे सांब द्वारा गरुड पर सवार हो भारत में आये और अपनी विशिष्टता को अनकानेक राजनैतिक एवं धार्मिक उथल पुथल के अनंतर आज भी अपने आपको शाकद्वीपीय ब्राह्मण के रुप में स्थापित रखा है।

सूर्य उपासना अनादि काल से चली आ रही है। वेदों में पुराणों में महाभारत, रामायण आदि ग्रंथो में सूर्य उपासना की चर्चा मिलती है । भविष्य पुराण एवं साम्बोपख्यान तो इसके मूल ग्रंथ है । सौर धर्म अर्थात जिसमें सूर्य भगवान कोही परमात्मा मानकर अन्य देवता को सूर्याधिन मानता है। सूर्य को अपना इष्टदेव और सर्वेसर्वा

माननेवाले व्यक्ति सौर कहलाते है। सौर जन गले में स्फटिक माला ललाटपर रक्तचंदन का तिलक लाल पुष्प की माल, अव्यंग धारण करनेवाले शिखायुक्त मंडित सिर वाले सूर्यस्तवन एवं सूर्य के अष्टाक्षर मंत्र “ॐ प्रणि सूर्य आदित्योम:” आदि मंत्र का जाप करनेवाले रविवार तथा संक्रांती को नमक सेवन न करनेवाले सूर्य भगवान के दर्शन बिना जल तक ग्रहन न करनेवाले सौर कहलाते है। परंतु उपरोक्त वर्णित व्यक्ति वा सौरजन आज नगण्य नजर आते हैं । परंतु शाकद्वीपीय मग या ब्राह्मण (सूर्यपूजक) आज भी अपने अस्तिव को कायम रखते हुओ सौर संप्रदाय को जिवीत रखे है। सौर संप्रदाय को माननेवाले लोग सूर्य-अयं पूजा मंत्रादि जाप स्वपन कोही मोक्ष का साधन मानते है। ये प्रभु के संकार स्वरुप कोही आराधना उपासना करते हैं।

इसी संदर्भ में वेद पुराणों के मर्मज्ञ कहते है कि यह निसंदेह कहा जा सकता है कि हजारो वर्ष पहले सूर्योपासक लोग अन्य प्रकार के बहुत से एकेश्वर वादियों से मानसिक तथा अध्यात्मिक रूप में अधिक वरिष्ट थे, ज्ञानी थे। कल्यांतर में विष्णु स्वरूप भगवान सूर्यनारायण ने ब्रह्माजी को जिम कर्मयोगादि का ज्ञान दिया था, वही मागीधारा सौर धर्म है, उसी को विष्णु अवतार श्री कृष्ण ने नरश्रेष्ठ अर्जुन को गीता ज्ञान के रुप में प्रज्ञात किया। द्वापर युग के अंतिम चरण में सूर्यपूजा का श्रीकृष्ण पुत्र सांब द्वारा लाये गये विद्वत मग ब्राह्मणों ने सौर धर्म (संप्रदाय के रूप में प्रचार एवं प्रसार किया)

इतिहास कारों के अनुसार इसकी ४ सदी से १२ वी सदी तक सौर धर्म का अतिय प्रसार था इसी दौरान साक्षात भगवान भुवन भास्कर के चक्रस्वरुप प्रतिकात्मक चिन्ह का अब मूर्ति स्वरुप में परिवर्तन होने लगा और रथारुड, कमलासन मूर्ति तथा खड़ी हुआ मूर्ति के रूप में सूर्यप्रतिमा तय्यार कर विशाल मंदिरों का निर्माण होने लगा । ज्ञातव्य है कि पहले सूर्य की पूजा अर्चा मंत्रों द्वारा होती थी। मंदिर निर्माण के पाचात स्थापित मूर्ती पूजा का चलन बढ़ने लगा। भौगोलिक दृष्टी से पूर्व ओरिसा से लेकर पश्मीच मे राजस्थान, गुजरात तक सम्पूर्ण उत्तर भारत में सूर्य मंदिरों के निर्माण सह सौर प्रसार होने लगा था। उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में यह चलन कम था।

कोणार्क मंदिर एक विश्व विख्यात सूर्य मंदिर है। जिसे कोणादित्य भी कहा जाता है। भग्नावस्थामें भी यह मंदिर दर्शनिय है। इसे रथ मंदिर भी कहा जाता है। कश्मिर का मार्तंड मंदिर, जो अमरनाथ के मार्गपर है। मूलतान स्थित विशाल सूर्यमंदिर की चर्चा पुरणों तथा इतिहासमें की जाती है, अब नहीं रहा। परंतु विदेशी यात्री अपने यात्रा वर्णन में यहां के विशाल मंदिर सुवर्ण प्रतिमा एवं मग पुजारी की चर्चा करते हैं। इसी संदर्भ में कालपी स्थित यमुना किनारे सूर्यमंदिर जिसका वर्णन भवभूति के नाटकों में मिलता है। मथुरा स्थित सूर्यमंदिर, उत्तर प्रदेश का अल्मोडा स्थित सूर्यमंदिर देवलास का विशाल मंदिर, गया कार के मंदिर, अयोध्या टिकमगढ जयपुर के गलताजी ओसिया (जोधपुर) का सूर्यमंदिर, रणकपुर (राजस्थान, खजुराहो, (मध्यप्रदेश) खम्बात (गुजरात) गुजरात के मोढेरा का पुरातन सूर्यमंदिर, कर्नाटक मलवा का सूर्यमंदिर तमिलनाडु महास के

कुंभकोणम के शिव इलोरा, भाजा और खण्डगिरी की गुफाओं दर्शायी गयी है। राजस्थान के भीनमाल कच्छ के कंथकोट सौराष्ट्र मे

मंदिर के

थान मिश्रेश्वर के पास, साबरमती और हाथ पती के संगम के सन्निकट, प्रभास क्षेत्र सोमनाथ में भी अनेक छोटे बड़े मंदिरों की सूचना मिलती 1 है। सूर्य तेज के अंश प्रतिक मंदिरों के साथ ही इस प्रदेश में लोग सूर्यपत्नी राशी को संतान देनेवाली देवी के रुप में मानते है । स्त्री के प्रथम गर्भधारणा सीमत के समय मंडप आदि डालकर उसकी मूर्तीबनाकर पूजा करते है । हिन्दु कुटुंबो में इस समय ८२ दिन उत्सव मनाते है । माता के नाम के गीत और गरबा कार्यक्रम मनाते है । यहां सूर्य एवं राशी घोडा और घोडी रुप में ही है । यहा दर्शनार्थियों को खारक बतासे तथा सुपारियां बांटी जाती है । मंदिरों की श्रृंखला में भारत सीमापर स्थित नेपाल में भी सूर्यमंदिर (तीर्थरुप) है। यह वाग्मती नदी के पूर्वी तट पर सूर्य घाट नामक स्थान पर पाशुपत क्षेत्र के नाम से जाना जाता है यही गुध्येश्वरी मंदिर मे यह सूर्यमंदिर है । एक और मंदिर जो सूर्यविनायक के नाम से विख्यात है, भक्रपुर के निकट है । कहते है किसी राजाने अपने कुष्ठ रोग निवारण हेतु इसकी निर्मिती की थी ।

इन सारे वर्णन का अर्थ यह है कि भारत वर्ष में प्राचिन समय से ही सूर्यपूजा होती थी तथा ये मंदिर उस वक्र के सौर सम्प्रदाय के उत्थान के प्रतिक है । कालानुरुप इतिहास के साथ साथ भौगोलिक स्थितियां भी बदलती है और धर्म सभा आदि में भी परिवर्तन होता है। जैन धर्म बौद्धधर्म का उदय शैव, वैष्णव संप्रदाय का महत्व विधर्मीयों का राज्य आदि आदि के प्रभाव से धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन दिखाई देने लगे । सूर्य अब विष्णु स्वरुप में पूजित होने लगा वैष्णव पंथ के रुप में उभरने लगा। कालांतर में आद्य शंकराचार्य ने सारे भारतवर्ष में भ्रमण कर, वैदिक धर्म को पुन: पल्लवित करने के लिये, विविध विद्वत जनों से शास्त्रार्थ करते हुने विभिन्न वैदिक संप्रदायों को एकत्रित करने का सफल प्रयत्न किया ।

शिखायुक्त मुंडित सिर स्वरुप का वहन नहीं कर सकते है। नाहीं सूर्य को देखे बिना जल भी ग्रहण न करने जैसा तप का पालन कर सकते है। मात्र भगवान भुवन भास्कर केवल अयं मात्र से प्रसन्न रहते है । कमसे कम वह पुण्यप्रद कर्म हम कर सकते है इसमें त्रिसंध्या का विधान है। * प्रातः सूर्योदय पूर्व शौच्यादि से निवृत्त हो स्नान कर

भगवान भुवन भास्कर का स्वागत करने के लिये तत्पर

रहना चाहिये । * दोपहर १२.०० बजे जब सूर्य अपने सर पर रहे अर्थात आकाशमध्य में दिखे नब

तिसरी संध्या सायंकाल सूर्यास्त पूर्व स्नानादि से निवृत हो कर भुवन भास्कर के विदाई स्वरुप का सत्कार करना चाहिये ।

आज घरों में नलादि से अथवा अन्य साधनों से घर में ही पानी / स्नानदि की व्यवस्था है। पहले सभी लोग नदियों, सरोवरों, तलावों में स्नान करते थे तब अपने आपको कमर तक पानी में रखकर अंजली से अर्घ्य देते थे। आज भी तीर्थ स्थानों में नदी, तलाव, कुंड आदि में स्नान करते समय सभी हिन्दुजन भगवान सूर्य को अर्घ्य देते है | घरों में अर्घ्य देने के लिये कहे नुसार स्नानदि से निवृत्त हो निर्मल चित्त से ताम्रकुंभ (पात्र) में स्वच्छ ( निर्मल) जल भर कर उसमें रक्तचंदन, कुंकुम, अक्षद, रक्तपुष्प, (जयाकुसुम, करवीर (कोर) आदि डालकर भगवन सूर्य नारायण की आटे सुबह (पूर्व की ओर) शाम में पश्चिम की ओर मुख कर ताम्र कुंभ को दोनों हाथों से अपने मस्तक तक उपर करके नीचे कोई ताम्रपत्र (थाली) में भगवान भुवन भास्कर का अष्टाक्षर मंत्र पढ़ते हुआ ‘ॐ ऐहि सूर्य सहस्रांशी तेजो राशे जगत्पते । अनुकम्पय मां भक्तां गृहाणंध्यं दिवाकरः ॥’ गायत्री मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः तत्स वितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो योनः प्रचोदयात्।’ यह सविता मंत्र का ३ बार जाप कर भुवन भास्कर भगवान सूर्य नारायण को अर्घ्य देना चाहिये ।

(गायत्री मंत्र के बाद ब्रह्म स्वरूपिणे सूर्यनारायणाय नमः । प्रदक्षिणा कर पश्चात नमस्कार करे ।

जपाकुसुम सकाशं काश्मेय महाध्युतिम् ।

ध्वान्तारि सर्व पापदनं प्रणतोऽनमस्कार ।।

( जपाकुसुम के फूल के समान प्रकाशवाले काश्यप गोत्रिय महान तेजस्वी अंथकार के नाशक सब प्रकार के पापों का नाश करनेवाले सूर्य भगवान को नमस्कार करता हूँ ।

अर्घ्य के समान ही आदित्य हृदयस्तोत्र नित रोज पढ़ने से व्यक्ति अपने मनवांछित फल की प्राप्ती करता है। भगवान सूर्यनारायण द्वारा प्रेषित स्तवराज स्तोत्र पढने से भी सारे पापों का नाश होता है। आरोग्य संपदा वृद्धींगत होती है। प्रभु के १२ नामों का स्मरण नित रोज

करने से भी भगवान प्रसन्न होते हैं। भगवान सूर्य अर्घ्य के रूप में पूजा अर्चा के रुप में जप जाप से नाम स्मरण से इतनाही नही केवल मानसिक पूजा से भी संतुष्ट होते है। ऐसी सौर संप्रदाय की मान्यता है। भगवान भूवन भास्कर केवल प्रत्यक्ष देवता ही नही ‘गुरु’ स्वरुप भी है। श्री हनुमानजी ने इन्ही से शिक्षा ग्रहण की, भगवान सूर्य के ही प्रताप से योगीराज याज्ञवल्क्य को ब्रह्म विद्या और चाक्षुष्मती विद्या का ज्ञान प्राप्त हुआ। भगवान श्रीरामने अगस्त्य ऋषी के कहने से आदित्य हृदय स्तोत्र पठन एवं आराधना से महाबली रावण पर विजय प्राप्त की। भगवान श्री कृष्ण पुत्र जांबवती नंदन सांब की सूर्योपासना का चमत्कार सर्वश्रुत है ही। भगवान सूर्य द्वारा युधिष्टर को द्रोपदी प्रदत्त ‘अक्षय पात्र सत्राजित को दिया हुआ स्थामंतक मणी कुन्ती का आवाहन सूर्यपुत्र- कवच कुंडलधारी कर्ण, कुष्ठ रोग से आक्रांत मयुर कवी ने सूर्यशमक की रचना कर भगवान भास्कर की अनुकम्पा प्राप्त की। इसी संदर्भ में पौराणिक गाथानुसार सूर्य भक्त ऋषी जरत्कारु, (सूर्य अर्घ्य ) च्यवन ऋषी को प्राप्त यौवन आदि अनेक गाथाएं प्रकाशित है।

विश्व का सबसे प्राचिन दर्शन सौरदर्शन ही है। विश्व के विविध देशों सम्यताओं जैसे, पर्सियन चचों के (मित्र) ग्रीकों के (हेलियम) मिश्र (इजिप्त) के (रा) तातारियों का भाग्यवर्धक देवता (फ्लोरेस) प्राचिन पेरु ह. अमेरिका के एश्वर्यदाता फुलेस, रेड इंडियन्स के (एतना) और (एना) अफ्रिका के (दिले श्वेत) चीन का उ. ची.) आदि देवता सूर्य मित्र दिवकर आदि के रूप में पूजित तथा उपासित थे । अर्थात सूर्यशक्ति से ही सारी सृष्टी हुआ है। इसकी महिमा अपरम्पार है अनंत है। मुख्यतः इसकी पुजा अर्चा अनादि काल से विश्वस्तर में प्रचलित है और भारत में प्राचिन काल से ही प्रत्यक्ष देवता के रुप में पूजे जाते रहे है।

संक्षेप कहे तो जो व्यक्ति नित रोज स्नानादि से निवृत्त हो भगवना सूर्यनारायण को मनोभाव से ३ संध्या अर्घ्य देता है, प्रदक्षणा तथा नमस्कार निवेदित करता है। नित्य आदित्य स्तोत्र / स्तवराज स्तोत्र / प्रभु के १२ नाम / आदि का पठन करता है। रविवार को एकभुक्त अलुणा (विना नमकका) भोजन करता है। षष्टी / सप्तमी का वृत रखता है तथा विधिवत भगवान भास्कर का पूजन करता है उस “सौर’ पर प्रभु की अनुकंपा बनी रहती है।

भगवान उसे आयु, आरोग्य, बल वृद्धी, विद्या, विवेक, यश, किर्ती, सुखशांती, तेज, वीर्य, कांती तथा सौभाग्य प्रदान करते है। सौर संप्रदाय का यह भी मानना है कि नितरोज त्रिसंध्या अर्घ्यविधी मनभावन से करनेवाला व्यक्ति संसार से मुक्त हो जाता है ।

ऐसे विश्व के सबसे प्राचिन तम दर्शन के उत्तराधिकारी होने का हमे सौभाग्य मिला है। इस सौभाग्य का संवर्धन करता ही शा.ब्रा. समाज का एवं विद्वत जनों का आद्य कर्तव्य होना चाहिए ।

अस्तु

सर्वेसन्तु निरामया ।

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