सौर धर्म के अनुसार सृष्टि: सूक्ष्म निराकार, निरवयव, अव्यक्त और इन्द्रियों के लिए अगोचर ऐसे एक मूल तत्व से प्रकृति का निर्माण हुआ है । इतनी विशेषताएं होने के उपरांत भी अकेली प्रकृति अपना व्यवहार चलाने के लिए समर्थ नहीं हैं। सृष्टि संचालन हेतु इस प्रकृति को भी संयोग शक्ति की आवश्यकता होती है । तब सूर्य शक्ति को “पुरुष” की कल्पना देते हुए यह माना गया कि पुरुष और प्रकृति के संयोग से इस व्यक्त सृष्टि का निर्माण हुआ है । इसका अर्थ यह हुआ कि प्रकृति और पुरुष के संयोग से निर्माण होनेवाली अव्यक्त शक्ति के प्रादुर्भाव से निर्माण का प्रारंभ होता है । तभी तो यह सिध्दांत बनता है कि प्रकृति और पुरुष की अव्यक्त शक्ति ही इस सृष्टि का निर्माण करती है तथा इस जड़ प्रकृति को पुरुष शक्ति प्रदान करनेवाला मूल आधार “सौर” अर्थात् सूर्य ही है । अतः सूर्य को परब्रह्म की संज्ञा भी दी गई है।
सौर धर्म के कर्मप्रधान होने के कारण इसके प्रमुख तत्व भी कर्मप्रधान ही है । चराचर के द्वारा इन कर्मों का पालन किया जाता है। सौर धर्म के तत्व वैदिक परम्परा से ही स्वीकृत है। निम्नलिखित तत्व सौरधर्म में महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
१. ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्माऽमृतंगमय ।।
२. ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य
पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
३. ॐ सर्वे भवन्तु सुखीनः सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणी पश्यंतु मा कश्चिदुखमाप्नुयात ।।
४. ॐ सहनाभवतु सहनौ भुनक्तु सहवीर्य कर वावहे । तेजस्विनावधितमस्तु मा विद्विषावहे ॥
५. ॐ क्षेमहं सर्वान् क्षाम्यंतु मां सदा ।
६.न वयं कामये राज्यः, न स्वर्ग ना पुनर्भवम् । कामयेत दुखतमानां, प्राणिनामति नाशनम् ॥
जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्ति, जानामि धर्मम् न च मे विवृति । वृथा हृषिकेश हृदस्थितेन यथा नियुक्तिस्मि
७. तथा करोमि ॥
सौर धर्म की उत्पत्ति :
सौरधर्म की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई भी प्रणाम उपलब्ध नही है। सूर्य,क श्रेष्ठ वैदिक देवता है। सूर्य के विषय में वेद में वैज्ञानिक सिध्दान्त भी उपलब्ध है । मनु ने सूर्य को आदि देव माना है । अत: कुछ लोग मनु को ही सौरधर्म का प्रथम आचार्य मानते है । किसी के मतानुसार ऋग्वेद के द्रष्टा ऋषि ही इस धर्म के प्रथम आचार्य है। इस सब श्रद्धा का कुल अर्थ इतना ही है कि सौरधर्म ने विशेष रुप से कोई स्वतंत्र आचार्य पीठ अथवा मठ आदि की परम्परा साम्प्रदायिक स्वरुप में कभी विकसित नहीं की है ।
सौर धर्म या सौर सम्प्रदाय कर्मप्रधान होने के साथ-साथ आरोग्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होने के कारण आज इस सम्प्रदाय की सूर्यशक्ति और उसको अपनाने वाले लोग आरोग्य उपचार, आयुर्वेद, ज्योतिष्य आदि क्षेत्रों में प्रभावी होने के कारण इन विद्याओं में सर्वत्र कार्य कर रहे है । आज भी सौर सम्प्रदाय का शाकद्वीपीय समाज अपनी सूर्य आराधना की प्रतिष्ठा कायम रखते हुए पूजा-अर्चना के क्षेत्र में तथा मंत्र-तंत्रों पर अपना प्रभुत्व कायम रखे हुए है। इतना ही नही बल्कि आज समाज में नैराश्य की भावना से मानव को अपनी बुध्दि का और शक्ति का जो विस्मरण हो गया है वह वापिस दिलाने के लिए तथा हिन्दू धर्म में जो संकीर्ण साम्प्रदायिकता बढ रही है उसे दूर करते हुए, आरोग्य वर्धक जीवन देने वाले सौर सम्प्रदाय को पुनर्जीवित करने की दृष्टि से भी शाकद्वीपीय समाज प्रयत्नशील है ।