महाकवि वाणभट्ट सातवी सदी के महाराजा हर्षवर्धन के राजाश्रय प्राप्त संस्कृत भाषा के प्रकांड पंडित गद्यकाव्य एवं पद्य लेखन पर समान प्रभुत्व रखनेवाले सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट. तटवर्ती प्रितीकुटो आशो शहाबाद जिला स्थित पिटारा ग्राम के नाम से जाना जाता है । पश्चात कुछ भट्ट कुल यहां से स्थलांतरित भी हुआ। ये सभी कुल तंत्र मंत्र के जो आज अच्छे जानकार थे विशेष रुप से सर्वश्रुत थे। महाकवि बाणभट्ट ने संस्कृत गद्यकाव्य, कादम्बिनी तथा प्रमुख एवं प्रसिद्ध ऐतिहासिक दस्तावेज के रुप में हर्षचरित् की रचना की। अपने कुष्ट रोग निर्मुलन हेतु प्रभुआराधना सह चण्डिका शती की भी रचना की 1
समकालिन संस्कृत कवि मयुरभट्ट भी शाकद्वीपी मग (ब्राह्मण) थे और वे बाणभट्ट के करिवी रिश्तेदार भी थे । कुछ लोगों के मत थे मयुर भट्ट बाणभट्ट के साले थे। (तो मतांतर से श्वसुर) परंतु रिश्तेदारी के अलावा उनके आपसी मित्रता थी । मयुर भट्ट : मयुर भट्ट बाणभट्ट के समकालीन सम्बधी और घनिष्ट मित्र थे । मयुर भट्ट भी सुप्रसिद्ध संस्कृत कवि थे । “देव” यह मयुर भट्ट की तपस्थली थी। क बार कवि मयुर ने कुछ संस्कृत पद्यों की रचना की और उसे सुनाने के लिये अपने सम्बधी तथा घनिष्ट मित्र बाणभट्ट के पास निकले, जाते-जाते रात्री के अंतिम प्रहर में वे बाण के द्वार पर पहुंचे । उस रात कवि बाण अपनी पत्नी को मनाने में लगे थे और पत्नी न मानने की जिस में थी । रात्री समाप्त हो रही थी बाण अपनी पत्नी से पद्य में कुछ कह रहे थे। तीन चरण तो बन गये परंतु चौथा चरण नही बन रहा था। बार बार तीन चरण तक बोले पर चतुर्थ का स्फुरण नही हो पा रहा था। द्वार पर खड़े कवि मयुर अपने स्फुरण को रोक नही पाये और उन्होने चौथा चरण कह दिया ।
मयुर कवि द्वारा स्फुरित चतुर्थ चरण की पूर्ती को सुनकर बाण बाहर आये और अपने रसभंग से क्रोधीत हो अपने घनिष्ट मित्र को ही कुष्ट रोग होने का श्राप दे दिया। अनायास ही अकारण श्रापदान से कवि मयुर कुपित हो बाण को भी कुष्ट रोग हो जाने का श्राप दे दिया। परंतु यह जानकारी भी प्राप्त होती है कि मानभंग से कुपित होत्राण की पतीन ने मयुर को कुष्ट रोग होने श्राप दिया था। खैर उसके बाद कवि बाण ने गया मंगलागौरी भगवती की शरण में जाकर चण्डीशतक लिखा और इस शतक द्वारा मां भगवती से प्रार्थना कर उनके आशिर्वाद से कुष्ट रोग से मुक्त हुआ। इधर कुष्ट रोग से ग्रसित मयुरक वि देव आये और वहां स्थित सूर्यमंदिर के समिपस्थ पिपल वृक्ष के नीचे बैठकर सूर्य शतक की रचना प्रारंभ की। आपने ऐसा संकल्प धारा की एक पद्य बनाकर व रस्सी का टुकड़ा काट दूंगा। इस प्रकार सौ पद्यो से सूर्य की प्रार्थना पूर्ण करुंगा तथा इसे या तो कुष्ट रोग से मुक्त होजाऊंगा या फिर स्वयं का प्राणांत कर लुंगा । इस प्रकार सूर्यशतक पद्य रचना प्रारंभ की।
परंतु उस पिपल वृक्ष पर ब्रह्म राक्षस का निवास था। जो पद्यरचना मयुर कहते वह रचना ब्रह्म राक्षस भी कह देता । मयुर समझ गये कि यह सारा उपद्रव ब्रह्म राक्षस का ही है। इसे बचने का उपाय जरुरी था। मयुर जानते थे कि ब्रह्म राक्षस को नाक नही होती इसलिये कवि मयुर ने सानुनासिक पद्य की रचना प्रारंभ कर दी। इस सानुनासिक पद्य का उच्चारण ब्रह्म राक्षस नहीं कर सका और पराजित हो कवि मयुर के सम्मुख उपस्थित हुआ और कवि को वर मांगने के लिये कहा। मथुर ने ब्रह्म राक्षस को वहां से चले जाने के लिये अनुरोध किया और तुम चले गये हो इसका प्रमाण भी मांगा। ब्रह्म राक्षस ने वर अनुसार वाहां से प्रस्थान करलिया और कहे अनुसार वह वृक्ष सुख गया। कवि मथुर ने अपनी प्रार्थना पद्य रचना प्रारंभ कर पूर्ण १०० पद्य रचनाकर “सूर्यशतक” पूर्ण किया। भगवान भुवन भास्कर के प्रसन्न होने पर उनका कुष्ट समाप्त हो गया । पश्चात मयुर अपने ग्राम पहुंचे। लोगें ने उनका सम्मान सत्कार किया। कहते है कि जिसप्रकार मयुर कवि कुष्ट रोग से मुक्त हुआ उसी प्रकार कोईभी व्यक्ति स्वरचित काव्य द्वारा सूर्य आराधना एवं प्रार्थना द्वारा रोग मुक्त हो सकता है। भगवान सूर्य नारायण की नित रोज पूजा अर्चा अर्घ्यदान नमस्कार एवं प्रार्थना करने से भी भगवान प्रसन्न हो जाते है । तारक भोजक का नाम भी इसी श्रृंखला में बाणभट्ट, मयुर भट्ट के समकालीन थे। आप ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड पंडित थे तथा कहा जाता है कि आपही ने बालक राजकुमार हर्षवर्धन की जन्म कुंडली बनाई थी और निर्देशन किये थे ।
ऐसे विद्वत विभुतियों का स्मरणिका २००५ सभा और समाज के माध्यमसे मनस्वी अभिवादन एवम् नमन प्रेषित
करती है ।