महर्षि वसिष्ठ

शाकद्वीपीय महर्षि वशिष्ठ हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के मानस पुत्र है। आप सप्तर्षि मंडल के दैदीप्यमान महर्षि है । काम-क्रोधादि षडरिपु आपसे पराजित होकर आपकी (महर्षि वसिष्ठ की) चरण सेवा रत रहे हैं. । आप आदर्श त्याग, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य एवं क्षमा की शाश्वत प्रतिमा रहे है। आपका भगवत्प्रेम निश्छल प्रेम के रुपेमं सर्वश्रुत है। आपका चरित्र अति विस्तृत है। आपने अपने ब्रह्मबल को जागृत किया प्राप्त किया। आप सत्संग को तपस्या से भी बड़ा मानते थे । महर्षि वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र ऋषि की कथाएँ भी जुड़ी है । विश्वामित्र राजा गांधी के पुत्र थे। वे एक बार वसिष्ठजी के आश्रम में पहुंचे, वहां महर्षि के (अपने ब्रह्म बल से प्राप्त) कामधेनु को लेना चाहा महर्षि वसिष्ठजी के मना करने पर भी विश्वामित्र ने हठ न छोड क्षात्रबल के जोर पर कामधेनु पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे इस पर कामधेनु के माध्यम से महर्षि वसिष्ठ ऋषी ने अपने ब्रह्मबल से विश्वामित्र के क्षात्रवल को पराजित किया।

ऐसे ही एक प्रसंग में विश्वामित्र और महर्षि वसिष्ठ में एक विवाद हुआ कि तपस्या बड़ी है या सत्संग । विश्वामित्र तपस्या के पक्ष में थे जबकि महर्षि वसिष्ठजी सत्संग के पक्ष में थे। दोनों ही विवाद का निर्णय कराने शेषजी के पास पहुंचे। दोनों की बात सुनकर शेषजी ने कहा की आपमें से कोई एक एक क्षण भर के लिये पृथ्वी का भार अपने सिर पर ले तो मै निर्णय कर दूँ । विश्वामित्र ने अपनी हजारों वर्ष की तपस्या के फल का संकल्प करके क्षणभर के लिये पृथ्वी को धारण करना चाहा पर न करसके । महर्षि ने एक क्षण के सतसिंग का फल लगा कर क्षणभर को पृथ्वी को धारण कर लिया। बिना कुछ कहे निर्णय हो गया अर्थात सत्संग तपस्या से कई गुना ज्यादा बलशाली है।

महर्षि वसिष्ठमें द्वेश और दुर्भावना लेप मात्र भी नहीं थी। महर्षि वसिष्ठ के और धर्मपत्नी असंथति के एकांत वार्तालाप ने जिसमें वसिष्ठजी विश्वामित्र के तपोबल और ब्राह्मणत्व की प्रशंसा कर रहे थे, ने विश्वामित्रजी के भितर स्थित शेष दुर्भावना और होने जा रहे अनिष्ट को परावृत्त किया और विश्वामित्र उनके गले लग गये। ऐसा सद्भावना का पूंज था महर्षि वसिष्ठ में ।

महर्षि वसिष्ठ क्षमा की मूर्ति थे। उनका मानना था कि सभी को अपने किये हुआ कर्मों का फल भोगना पड़ता है। ना तो कोई किसी को मार सकता है नाही तार सकता है। जो कुछ कर सकता है वह केवल परमात्मा ही कर सकता है।

विश्वामित्र ऋषी के द्वेशभाव व आप से सक्षम ने महर्षि वसिष्ठ के एक नहीं पूरे सौ पुत्रों कोखा लिया । परंतु इसी सिध्दांत हेतु उन्होने विश्वामित्र वा राक्षस को क्षमादान किया। वंश-वृक्ष समाप्त होने से वे अत्यंत दुःखी हुअ । परंतु उनके ज्येष्ठ पुत्र वधु के गर्भ से पाराशर ऋषी का जन्म हुआ, इसी पौत्र के कारण वे जिवित रह पाये। पौत्र, शक्तिपुत्र पाराशर ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हे प्रसन्न किया एवं सर्व शक्तियां प्राप्त की। तथा अपने पिता एवं पितृबन्धु आँके मृत्युकी जानकारी से उद्गीन हो क्राध से उन्हें भस्म कर देने की योजना बनाई परंतु महर्षि वसिष्ठ ने अपने पौत्र को संस्कार प्रबोधन से द्वेशभाव और बदले की भावना से परावृत्त कर लोक कल्याण एवं शांती का बोध ज्ञान कराया और साधुवाद दिया ।

महर्षि वसिष्ठ गर्वविरहित थे। अयोध्या नरेश महाराज दशरथ ने महर्षि वसिष्ठ के अनुमति से ही ऋग्यंऋषी को पुत्र कामेष्टी यज्ञ सफल करने हेतु बुलवाया था और सम्पन्न भी करवाया था। जिसके हविण्य प्रदान नंतर राम लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न का जन्म हुआ था। केवल परमपिता परब्रह्म रामावता र के रुपमें पृथ्वी पर अवतिर्ण होनेवाले है इस हेतु ही आप स्वर्गभूमि से पृथ्वी पर सूर्यवंशियों के पौरोहित्य पद को स्विकार किया था। स्मरणिका २००५ का सभा और समाज के माध्यमसे प्राप्त स्मरणिय त्याग ब्रह्मबल और तेजपुंज क्षमानिधान शाकद्वीपीय महर्षि वशिष्ठ को दण्डवत प्रणाम है ।

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