भारतखंड के तीन प्राचीन सूर्यक्षेत्र (मंदिर)

वस्तुतः भगवान सूर्य एक शाश्वत देव है । सब देवन में साचा देव सर्व द्रष्ट्य है । सूर्य आत्मा जगत्स्त स्थुपश्च अर्थात सारे जगत् के आत्मा स्वरुप है, उर्जा पुंज है। सारा जगत ब्रह्मांड नायक से उत्पन्न है और पोषित हो उसी में बिलय हो जाता है । मग श्रेष्ठों ने इसी केवल सत्य की उपासना आराधना का सारे विश्वभरमें प्रसार कर उसे स्थापित किया ।

भारत में भी सूर्य पूजा, प्रतिमाराधन एवं मंदिर निर्मिती प्राचिन काल से ही सिद्ध है । वशिष्ट नारदादि ऋषी एवं सूर्यवंशी क्षत्रिय सूर्य उपासक रहे है । त्रेता में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने आदित्य हृदय स्तोत्र हृदयगंम कर रावण को परास्त कर विजय प्राप्त की । द्वापर युगमें भगवान श्रीकृष्ण एवं जांबवती नंदन सांब विशेष सूर्य आराधक / उपासक हुआ। इसका विस्तृत विवरण हमें पुराणों में भविष्य पुराण, वराह पुराण, साम्बोपख्यान, स्कंद, पद्म, विष्णुपुराणादी में तथा महाकाव्यों में प्राप्त होता है । पुराणानुसार भरतखंड में तीन क्षेत्र सूर्य आराधना के प्रमुख क्षेत्रों के रूप में जाने जाते है। पूर्व में कोणार्क जो मित्रवन के नाम से जाना जाता है । सुतीर (मुण्डीर) या कोणादित्य के नामसे भी पहचाना जाता है। प्रातः संध्या तथा उदित नारायण के रूप में आराध्य है । दूसरा प्रमुख क्षेत्र कृष्ण गंगा (यमुना) तीर पर मथुरा के निकट कालपी कालप्रिय के नामसे मध्यान्ह सन्ध्या एवं शिवं दर्शनार्थ के लिये जाना जाता है। तथा तिसरा प्रमुख क्षेत्र मुलस्थान जो मुल्तान के नाम से जाना जाता है।

यह स्थान सायं संध्या एवं आस्ताचल नारायण के दर्शन का स्थान कहा गया है । पुराण कथानुसार कुष्ठ रोग से ग्रसित श्रीकृष्ण जांबवती नंदन सांच ने नारदमुनी एवं पिता श्री कृष्ण द्वारा प्रेरित सूर्य आराधना से निर्मल हो भगवान सूर्यनारायण के आदेशानुसार एवं प्रभु श्री कृष्ण एवं नारदजी के निर्देशानुसार इन तीन स्थानों पर सूर्यप्रतिमा मंदिर स्थानित कर सारे भरतखंड में सौरधर्म का प्रसार एवं प्रचार कर सौर धर्म की पुनःस्थापना की। इस मंदिर प्रतिमा प्राण प्रतिष्ठा एवं नित्य पूजा अर्चा तथा सौरधर्मिय आराधना एवं उपासना संबंधी ज्ञानदान हेतु शाकद्वीप से १८ अष्टादश गौत्रिय वेद वेदांग ज्योतिष एवं चिकिनसा शास्त्र में पारंगत मग कुलों को श्रीकृष्ण भगवान की आज्ञा से गरूडपर आरुढ कर स्वयं सांव ने लाया था। कालान्तर में त्रिकाल संध्या सूर्योपासना का अंग स्वरुप बनी रही आज भी प्रत्येक हिन्दु आस्था त्रिसंध्या में विश्वास रखती है । इतिहास बेताओं के अनुसार ४ थी शताब्दी में सौरधर्म एवं सूर्यपूजा जो वैदिक काल से ही चलती आ रही थी ज्यादा प्रचलित हुआ ।

सूर्यगोलार्क तथा अग्नीस्वरूप भास्कर अर्थात होम हवन के साथ ही सौर प्रतिमा पूजन का भी चलन बढ़ने लगा। छठी शताब्दी के विद्वान मग सूर्य वराहनिहिर द्वारा रचित विद्वतापूर्ण ग्रंथ में मग ब्राह्मण, सूर्यपुजारी है तथा सूर्य प्रतिमा कैसी होनी चाहिये की विस्तृत जानकारी के साथ मंदिर पूजा के लिये मग ब्राह्मण ही अधिकारी होते है का वर्णन किया।

इसी ४ थी से १०-१२ वी शताब्दी तक अनेक स्थानों पर विशाल सूर्य मंदिरो का निर्माण तत्कालीन राजा महाराजाओं द्वारा हुआ। उस समय सौरधर्म को राजाश्रय प्राप्त था । तथा मग ब्राह्मणों को समाज एवं राजस्थान में मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त थी । चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में वराह तिहीर तथा हर्षवर्धन के काल के बाण भट्ट मयुर भट्ट तथा तारक आदि मग श्रेष्ठ प्रतिष्ठित थे । कोणार्क का सूर्यमंदिर मंदिर निर्माण शैली का अद्वितीय नमुना है। जो सूर्य का रथमंदिर के नामसे विख्यात है। यह अद्भुत विशाल कलात्मक मंदिर आज खंडहर रूप में है । तथा पुरातत्व विभाग भारत सरकार के अधिनस्त है। कालपी तथा मुल्तान के मंदिर नामशेष है।

व्हेनसांग ने अपने प्रवास वर्णन मे (७ वी शताब्दी में) मुलतान स्थित भव्य सूर्यमंदिर मे सोने की सूर्य मूर्ति का उल्लेख किया है । ग्यारहवी शताब्दी मे गीझनी विद्वान आल्बेरुनी ने लकड़ी की मूर्ति वाला मंदिर देखा था। आल्बे रुनीने अपने ‘भारत भ्रमण’ नामक प्रवास वर्णन में लिखा है कि उस मंदिर के पूजारी मग ब्राह्मण है। हो सकता है विधर्मियों के भय से सोने की मूर्ती काष्ट में परिवर्तित कर दी गयी हो । भवभूती के सभी नाटकां में कालपी सूर्य मंदिर का विवरण आता है । अर्थात श्री सांबने प्रातः कालीन सूर्यमूर्ती सुतिर मैत्रवन कोणार्क में, द्वितीय विख्यात प्रतिमा (मध्यान्ह) कालप्रिय कालपी में कथा सन्ध्या बेला के लिये अस्तांवल के रुप में मुलस्थान मुल्तान में स्थापित की पूर्व से पश्चीम तक सम्पूर्ण भरतखंड के आर्यावृत में सौर संप्रदाय के प्रतिक स्थापित किये। ऐसे उपरोक्त वर्णित मंदिर स्थापना में ५-६ ठी शताब्दीके १०-१२ शताब्दी तक अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ । पश्चीम में गुजरात स्थित मोढेरा की अप्रतिम मंदिर पूर्व मे कोणार्क तो उत्तर मे कश्मीर का मार्तंड मंदिर सुविख्यात माने जाते है । जहां सूर्यमंदिर होता है वहा सूर्यकुंड होता ही है । एलोरा भाजा और खण्डगिरी की गुफाओं मे सूर्यमूर्तियां गढी गयी है । ये तो राजस्थान के राणकपूर तथा ओसिया में भी विशाल और भव्य सूर्यमंदिर है । इनके अलावा भी सूर्यमंदिर स्थित है । मतलगा (बेलगांव, कर्नाटक) लग भग ४०० वर्ष पुरानी भव्य मूर्ती है। मंदिर में प्रतिदिन सूर्यसुक्त का पाठ चलता रहता है । ये सभी स्थित वा भग्न मंदिर तत्कालीन सौर-धर्म उत्थान के अचल प्रतिक है ।

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