ज्योतिषाचार्य वराह मिहिर

हिमालयसी उत्तुंग सोच, सागरसी गहरी समज, अग्नीसा तेज, अनिलसा भावस्पर्शी विचार, आकाशिय विशालता तथा पृथ्वी सी स्फुर शक्ती एवं सहनियता का पिण्ड । ब्रह्माण्ड नायक भगवान सूर्यनारायण का अशिर्वाद अंशावतार मिहिर कुलोत्पन्न (मग श्रेष्ठ) सम्राट विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक ज्योतिष्य रत्न शिरोमणी वराह मिहिर का जन्म इ.स. ५०५ चैत्र शुद्ध दशम को मध्याह्न बारह बजे पं. आदित्य दास तथा सौ. इन्दूमती के घर पुत्र रत्न के रुप में हुआ। यह क्षण पं. आदित्य दास एवं सौ. इंदुमती के लिये अतिव आनंद का क्षण था, यह उनकी तपस्या का अलभ्य प्रसाद था ।

कहा जाता है कि वराह मिहिर के पिता पं. आदित्यदास तथा माता सौ. इन्दुमती दानों ही परम सूर्यभक्त थे । परतु विवाहोपरांत पच्चिस वर्ष पश्चात भी वे संतती सुख से वंचित रहे । इसे दुःखी होकर उभयद्वयों ने एक दिन सूर्यास्त समय ग्रामस्थ नदी में देहार्पण करने का निश्चय कर भगवान सूर्यनारायण को प्रार्थना कर नदी में डुबकी लेकर उपर आते ही भगवान सर्वनारायण प्रसन्न हो ब्राह्मण वेश में मग दम्पती को दर्शन किया तथा आशिर्वचन स्वरुप कहा ‘हे वत्स तुम पूर्वजन्मों के दुःकर्मो के कारण ही संतान प्राप्ती से वंचित रहे। परंतु मै तुम्हारी नितरोज पूजा अर्चा तथा कठोर तपस्या से प्रसन्न हो तुम्हे वरदान देने के लिए प्रस्तुत हूँ। मैं तुम्हे वरदान देता हूँ कि तुम्हे मुझ जैसा ही दैदिप्यमान पुत्र होगा, जो ज्योतिष शास्त्र का प्रकांड विद्वान होगा तथा वह “मिहिर” नाम से जगत् विख्यात होगा । और प्रभु अंतर्ध्यान हो गये।’ समयोपरांत, मगदम्पती प्रभु प्रसाद पाकर कृत कृत हुआ और इस बालक का नाम ‘मिहिर’ रखा ज्ञातव्य है कि मिहिर यह सूर्य के १२ नामों में है । अर्थात सूर्य का पर्याय वाची नाम है । यही मिहिर कालांतर में वराहमिहिर के नाम से जगत् विख्यात हुआ

पिता पं. आदित्यदास एक कुलिन मग (ब्राह्मण) थे, वे वेद पुराण ज्योतिष तथा सभी शास्त्रों के ज्ञानी थे । आप ही ने अपने पुत्र को विविध शास्त्रों वेद वेदांग, उपनिषदों ब्राह्मण ग्रंथो सहित अन्य ग्रंथो एवं शास्त्रों के साथ ही ज्योतिष शास्त्र सामुद्रिक शास्त्र (हस्तशास्त्र) मुद्राशास्त्र आदि अनेक विध ग्रंथो में पारंगत किया। साथ ही तत्कालीन विद्यावाचस्पतियों से भी लाभान्वित करवाया।

परंपरागत रूप से उम्र के आठवे वर्ष में उपनयन संस्कार सम्पन्न कर सर्व विद्या पारंगत “मिहिर’ ने भगवान सूर्य की कठोर तपस्या की तथा उनकी अनुकम्पा से ही अपने ज्योतिष शास्त्र के सभी अंगो पर विशेष भव्य किया। नये सुत्र प्रस्तावित किये। आप अब ज्योतिष विद्या के जानकार ही नही उसके निष्णांत हो गये थे । सर्वदुर आपके नाम की ख्याती फैल चुकी थी।

कहा जाता है कि एक बार सम्राट विक्रमादित्य अपने बन्धु भट्टी सह व्यापारी वेश परिधान कर मिहिर के घर आपके अपने आने का कारण बताते हुये अपने व्यापार के लाभ आदि एवं मुनिम की एकनिष्ठता आदि के बारे में प्रश्न पुछे मिहिर इससे पहले कभी राजदरबार में गये नहीं थे तथा वे राजादि से अनभिज्ञ थे। ज्ञातव्य है कि मिहिर ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड विद्यान थे तथा मुद्रा ज्योतिष के साथ ही भुवनभास्कर की कृपा से उन्हे वाच्य सिद्धी भी प्राप्त थी। आपने उपस्थितों को निहारा, प्रश्न कुंडली मांडकर सहज एवं सरलता से कहा महाराज आप न तो व्यापारी है और नाही आपके साथी ग्रहस्थ मुनिम, वरन आप यहां के महाराज है तथा आपके साथी आपके सौतेले बन्धु (भाई) है। आपकी माताएं अलग अलग है।

पिता पं. आदित्यदास एक कुलिन मग (ब्राह्मण) थे, वे वेद पुराण ज्योतिष तथा सभी शास्त्रों के ज्ञानी थे । आप ही ने अपने पुत्र को विविध शास्त्रों वेद वेदांग, उपनिषदों ब्राह्मण ग्रंथो सहित अन्य ग्रंथो एवं शास्त्रों के साथ ही ज्योतिष शास्त्र सामुद्रिक शास्त्र (हस्तशास्त्र) मुद्राशास्त्र आदि अनेक विध ग्रंथो में पारंगत किया। साथ ही तत्कालीन विद्यावाचस्पतियों से भी लाभान्वित करवाया।

परंपरागत रूप से उम्र के आठवे वर्ष में उपनयन संस्कार सम्पन्न कर सर्व विद्या पारंगत “मिहिर’ ने भगवान सूर्य की कठोर तपस्या की तथा उनकी अनुकम्पा से ही अपने ज्योतिष शास्त्र के सभी अंगो पर विशेष भव्य किया। नये सुत्र प्रस्तावित किये। आप अब ज्योतिष विद्या के जानकार ही नही उसके निष्णांत हो गये थे । सर्वदुर आपके नाम की ख्याती फैल चुकी थी।

कहा जाता है कि एक बार सम्राट विक्रमादित्य अपने बन्धु भट्टी सह व्यापारी वेश परिधान कर मिहिर के घर आपके अपने आने का कारण बताते हुये अपने व्यापार के लाभ आदि एवं मुनिम की एकनिष्ठता आदि के बारे में प्रश्न पुछे मिहिर इससे पहले कभी राजदरबार में गये नहीं थे तथा वे राजादि से अनभिज्ञ थे। ज्ञातव्य है कि मिहिर ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड विद्यान थे तथा मुद्रा ज्योतिष के साथ ही भुवनभास्कर की कृपा से उन्हे वाच्य सिद्धी भी प्राप्त थी। आपने उपस्थितों को निहारा, प्रश्न कुंडली मांडकर सहज एवं सरलता से कहा महाराज आप न तो व्यापारी है और नाही आपके साथी ग्रहस्थ मुनिम, वरन आप यहां के महाराज है तथा आपके साथी आपके सौतेले बन्धु (भाई) है। आपकी माताएं अलग अलग है।

आपकी माताश्री क्षत्रिय है तो आपके साथी बन्धु की माताश्री वैश्य है । और आपके और दो सौतले भाई है । राजा विक्रमादित्य यह सब सुनकर अवाक् रह गये । और तभी से मिहिर को राज ज्योतिषी के रुप में 1 अपने दरबार के नवरत्नों में ज्योतिषरत्न का सम्मान दिया। इन्ही नवरत्नों में महाकवि कालिदास तथा वरुरुची जैसे विद्वत रत्न भी थे।आपकी माताश्री क्षत्रिय है तो आपके साथी बन्धु की माताश्री वैश्य है । और आपके और दो सौतले भाई है । राजा विक्रमादित्य यह सब सुनकर अवाक् रह गये । और तभी से मिहिर को राज ज्योतिषी के रुप में 1 अपने दरबार के नवरत्नों में ज्योतिषरत्न का सम्मान दिया। इन्ही नवरत्नों में महाकवि कालिदास तथा वरुरुची जैसे विद्वत रत्न भी थे।

कथासार कुछ इस प्रकार है कि महाराजा को अपनी पहरानी से पुत्र हुआ। दरबार रत्न महाकवि कालिदास वरुरुच्ची तथा वराह मिहिर तीनों ने बालक राजकुमार का भविष्य कथन किया । सभी ने कहा कि राजपुत्र पर अठरावे (१८) वर्ष में घोर संकट आएगा । वराह मिहिर का ज्योतिषशास्त्र की तिनों विधाओं (शाखाओं) पर प्रभुत्व या वे ज्ञानी एवं अनुभवि थे। आपको वाच्चासिद्धी के साथ ही दिव्यदृष्टी भी थी। आपने अपने कथन को सुस्पष्ट करते हुने कहा कि यह बालक राजकुमार की १८ वे वर्ष में विशेष दिन अर्थात शनि अमावस्या को बराह नाखून से मृत्यु होगी। राजाने राजसभा में विचार विमर्श कर ८० फुट उंची दिवार युक्त राजभवन का निर्माण कर बालक राजकुमार की सम्पूर्ण व्यवस्था की अर्थात इतनी ऊंची दवार तक कोई भी जानवर पहुंच न पाये ऐसी व्यवस्था की । निश्चित विधि का विधान उस नियोजित दिवस पर राजकुमार अपने मित्रों संग ७ वे मंजील पर खेल रहा था। परंतु कुछ विश्राम हेतु राजकुमार भय की गच्ची छत पर गया वहा विश्रांती लेते समय चक्रवात जोरों से चलने लगी क्षणार्थ में ही भवन पर लह लहाता वराह चिन्हांकित ध्वज स्तंभ सह लेटे हु राजकुमार की छाती पर गौरा और चिन्हांकित वराह नाखून से ही राजकुमार के प्राण पखेरु उड़ गये। तद्नंतर इस तरह के अद्भुत भविष्य कथन की सत्यता से ही महाराजा विक्रमादित्य ने मिहिर को वराह मिहिर की पदवी दी ।

वराह मिहिर ने ज्योतिष शास्त्र के मुख्य तीनों अंगों (भागों) पर अपने ग्रंथलेखन के माध्यम से अपना प्रभुत्व दिखाया है। इन तीन भागों में प्रथम खगोलिय गणि तथा अकाशीय हक प्रत्यय जानकारी होता है ॥२) संहिता अर्थात मुहूर्त ज्योतिष मेदिनिय ज्योतिष भी कहते है। इसमें राष्ट्र व पर्जन्यादि संबंधी जानकारीहोती है। ३) होरा- इसमें व्यक्ति विशेष के भविष्य कथन का ज्ञान मिलता है।

वराह मिहिरने सिद्धांसंबंधी पंच सिद्धांत सूर्यसिद्धांत संहिता संबंधी वृहद संहिता (बृहद पारायण) तथा होरा ज्ञान संबंधी बृहद जातक ग्रंथों की रचना की। अलावा स्वल्प जानक, लघु जातक, लघु संहिता बृहत तथा लघु यात्राफल के साथ ही ब्रह्म सिद्धांत सविष्ट सिद्धांत व पुलस्त्य सिद्धांत आदि ग्रंथ स्पष्टीकरणार्थ व ऐसे अनेक ग्रंथ जो ज्योतिषियों, विद्वानों के लिये तथा स्थापत्य मूर्तिमान वास्तुशात्र मंदिर रचना मूर्तीस्थापना आदि ज्ञानवर्धक उपयुक्त ग्रंथों शिल्पीयों स्थपतियों वास्तुविदों के लिये की। आज भी ज्योतिषी विधान आप ही के ग्रंथों के माध्यम से पर्जन्यमान एवं फल ज्योतिष कथन करते हैं।

ऐसे विद्या वाचस्पती ज्योतिषरत्न सूर्यअंशवतार मगश्रेष्ठ आचार्य वराह मिहिर को स्मरणिका २००५ सभा और समाज के माध्यम से शतः शत: करबद्ध नमन करती है।

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