वेद, वेदांग पारंगत, उपनिषद, ग्रन्थ, मर्मज्ञ, अजेय शास्त्रार्थी, विलोभनिय अलौकिक विभुति ब्रह्मांश आचार्य मंडन मिश्र एक ऐसा तेजपुंज था जो अपने गुरु ब्राह्मण शिरोमणी कुमारिल भट्ट के गुरुत्व की दर्शनशास्त्र तथा मंत्रसिद्धी की सर्वथा साक्षात प्रतिमा थी ।
आचार्य मंडन मिश्र मण्डला ग्रामके निवासी थे । तथा पं.पू. शंकराचार्य के समकालीन थे । मण्डला ग्राम जिसे आजकल महेश्वर तथा महिष्मती पुरी कहा जात है । महिषमती नगरी यह ओंकारेश्वर के करिब ही महिष्मती नदी तथा नर्मदा के संगम स्थान पर बसी है। कहते है जब शंकराचार्यब्राह्मण श्रेषं वेद वेदांग पारंगत आचार्य कुमारिल भट्ट जो उस समय का एक ऐसा प्रस्थापित नाम था जिन्हे जितने का अथ है, सर्वज्ञ होना था । इसी कारण आचार्य शंकर दिव्यात्मा महर्षी व्यास के संदेशानुसार त्रिवेणी संगम स्थली प्रयाग राज जहां कालिंदी यमुना अपने काले रंग से तथा मोक्षदायिनी सर्वपापहारिण गंगा अपने निर्मल सफेद रंगमे आकर लुप्त सरस्वती के संग मिलती है। यही वह स्थान है जहां केवल स्नान मात्र से ही मनुष स्वर्ग प्राप्ती का मानधारक हो जाता है। स्नानदि से निवृत्त हो शंकराचार्य ने कुमारिल भट्ट की जानकारी प्राप्त की जो अत्यंत वेदना शाली थी। ज्ञातव्य है कि कुमारील भट्ट वेदवेदांगोके निष्पांत थे । शास्त्रार्थी थे, एक समय वे बौद्ध धर्मगुरु धर्मपाल से शास्त्रार्थ में पराजित होनेसे उन्हे उनका शिष्यत्व स्विकारना पडा । परंतु वे वेदों की निंदा सहन नही कर सकते थे । इसी कारण उन्हे प्रताडित होना पडा और वे इसे वे पुनः वेदाध्यान में लिप्त हो गये । और एक बार पुनः उन्होने बौद्ध गुरु धर्मपाल से पुनः शास्त्रार्थ किया और बौद्ध गुरु धर्मपाल इसमे पराजित हो गये । और उन्होने अपना देह त्याग दिया । इसे आचार्य कुमारिल भट्ट बहुत दुःखी हुने तथा गुरु हत्या की भाव से तथा जेमिनी
मिमांसानुसार ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर पाप कर्म किया इस भाव से प्रायश्चित हेतु आत्मदाह करने का निश्चय किया । ऐसी स्थिती में आचार्य ने आचार्य का दर्शन किया दोनो दिव्य आत्माएँ एक दुसरे को नमन करने लगी । आचार्य भट्ट दृढनिश्चयी थे । आचार्य शंकरने परावृत्त करने की कोशिश की। परतु कुमारिल भट्ट ने कहा कि मेरा शिष्य मंडन मिश्र जो महीष्मती नगरी में निवास करता है, मुझराही वेद वेदांगो तथा शास्त्रार्थ में पारंगत है । आप उसे परारत कर सके तो मेरा ही पराभव जैसा होगा। मंडनमिश्र की ज्ञानी पत्नी उभयभारती है जो उतनी ही विद्वत है । को निर्मायक पद दे। और इसके पश्चात कुमारिल भट्ट चिता में विलीन हो गये । आचार्य ने कुमारिल भट्ट का अंतिम दर्शन लेकर ओंकारेश्वर की ओर प्रस्थान किया ।
जहां तोता और मैना वेद चर्चा करते हो, ईश्वर का स्वरुप नित्य है ? या नहीं है ? आदि आदि वही घर मंडन मिश्र का है। यह वर्णन मंडला ग्रामवासी द्वारा मंडन मिश्र के घर का था। आचार्य शंकर मंडन मिश्र के यहां पहुंचे । ऐसे दानि मिलता है कि मंडन मिश्र ने अपने सुक्ष्म ज्ञान से जान गये थे और आपने आचार्य शंकर से शास्त्रार्थ शुरु किया । अनेक दिवस चलता रहा कोई किसी से कम नही था। हर हरेक के उत्तर में प्रश्न उपस्थित कर चर्चा बढती रहती । अंत में मंडन मिश्र ने पराजय स्विकार कर आचार्य का शिश्यत्व स्विकार किया सुरिश्वर नाम स्विकार कर चरण धूली ली। और आचार्य शंकर के प्रिय शिष्य बन गये। मात्र उभयभारती के आव्हान अनुसार देवी उभयभारती से शाखार्थ कर अंत में देवी उभयभारती जो साक्षात सरस्वती की रुप थी से नमन कर प्रार्थना की परंतु देवी ने समाधिस्त होकर देह त्याग किया और आचार्य शंकर के प्रार्थनानुसार देवी यंत्र में सदैव जागृत रहने का आश्वासन दे निजधाम प्रस्थान किया। आज भी श्रगेरी मठ में सरस्वती यंत्र प्रस्थापित है और सरस्वती नाम लगाते है। आचार्य मंडन मिश्र ने शंकराचार्यजी के आदेशानुसार उनके भाष्य पर टिका लिखी और प्रिय शिष्य रूपमें अंत तक कार्यरत रहे । स्मरणिका २००५ सभा और समाज के माध्यम से ऐसे विद्वत ज्ञानी ब्रह्मांश मर्मज्ञ गुरु आचार्य मंडन मिश्र के अलौकीक चरणधूली को मस्तक पर धारण कर आत्मिक आनंद का अनुभव करती है।